Monday, 5 October 2015

Waqt ko kaun rok sakta hai?


ये रात फिर सोएगी ,
सूरज फिर जागेगा,
ये सिलसिला थमता नहीं, दोस्त,
पीछा छुड़ा कर कहाँ तू भागेगा?

सन्नाटा फिर छाएगा,
खामोशियाँ बतलाएँगी,
तो कभी शोर इतना होगा,
कि रातें दिन में जैसे कोई बाज़ार बन जाएंगी। 

साथ छूटेगा अपनों का,
दिल फिर मुहब्बत करने से डरेगा,
कभी पास होंगे सपनों के इतने,
सफर खुशनुमा लगेगा। 

ये वक़्त का खेल है, दोस्त,
आखिर उससे कौन जीत सकता है?
तुम तो थक जाओगे मगर,
वक़्त को कौन रोक सकता है?

No comments:

Post a Comment