"रूह तक पहुँचने दो"
वक़्त ने दी है बहुत ठोकरें, बहुत खाएं है ज़ख्म हमने,
पर इन हालातों की नरमी को अब रूह तक पहुँचने दो ।
हर बार जैसे हम भूलेंगे नहीं अपने जीने के हक़ को,
कोई पूंछ न ले इस बार सांत्वना देते हुए,
"कि अब तो घाव भरा होगा,
अब वो अंग थोड़ी न दर्द से सना होगा?"
मैं कहता हूँ, इस बार उन चीखों को खुद में दबाना मत,
अपनी हार का गम किसी से भी जताना मत,
क्योंकि ये एक जीत थी, उस खौंफ के ऊपर,
ये जश्न था सांझ होने का ।
अब जब सुबह होगी, रौशनी दिखेगी रूबरू,
होगी मुलाक़ात एक नयी सदी से, रूबरू ।
दूर रख देना अब मर्हम को,
दूर रख देना बिखेरने वाले अब धर्म को,
सरफ़रोश कर देना खुद को इस ज़मीन से लिपट कर,
सो जाना मिट्टी की आँचल से चिपक कर ।
वो क्या जाने ज़िन्दगी के नज़ारों को,
जो दहशत की भूमि को ही जन्नत समझते हैं,
वो क्या जाने आज़ाद रहने की कीमत,
जो खुद की ही करवट में उलझते हैं ।
ये जो लगी है आग दिल में उसे बुझने न देना,
अब दोबारा ऐसी आफ़त की घंटी, अपने दरवाज़े पर बजने न देना,
यह तो पहला कदम है, हिम्मत को थोडा और सहजने दो,
इन हालातों की नरमी को अब रूह तक पहुँचने दो ।
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